अमेरिका की अफगान नीति और तालिबान।

शांति एक ऐस शब्द है ,जो निश्चित रूप से सुनने में सुकून भरा हो।परन्तु शांति प्रक्रिया उतनी ही जटिल होती है।
शांति प्रक्रिया में आवश्यक है कि प्रत्येक वर्ग वास्तव में शांति चाहता है। ना कि शांति के नाम पर केवल अपनी कुटिल चले चले।


       अमेरिकी राषट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव पूर्व किए अपने कई वादो में से एक था कि पूरी दुनिया के युद्धग्रस्त क्षेत्र से अमेरिकी सेना को बाहर निकालने का भी था। तो अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना क्यों चाहता है?और अमेरिका के नेतृत्व में नाटो सेना के अफगानिस्तान से जाने के बाद मध्य एशिया का भविष्य क्या होगा इसी कड़ी में हाल ही में कई दौर की बैठक तालिबान के साथ हुई।निश्चित रूप से यदि अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर निकलना चाहता है, तो वह भी चाहेगा कि अफगानिस्तान को एक बेहतर भविष्य देकर ही निकले। परंतु दो दशक के युद्ध के बाद अमेरिका यह समझ चुका है,कि तालिबान को अफगानिस्तान में पूरी तरह हराना मुश्किल है। तो अब वह तालिबान से बातचीत के जरिए शांति वार्ता करके अफगानिस्तान का भविष्य सुनिश्चित करना चाहता है। तो क्या हम यह मान लें कि अमेरिका अफगानिस्तान मैं हार चुका है? यदि अमेरिका का इतिहास देखें तो वियतनाम युद्ध में भी अमेरिका को मुंह की खानी पड़ी थी।या फिर इराक ,लीबिया ही क्यों ना हो जहां अमेरिका का हस्तक्षेप हुआ वहां बर्बादी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा।अब जब अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना चाहता है ,तो वह निकलने के बहाने अपनी बची इज्जत बचाना चाहताहै।इसी कड़ी में पिछले कई समय से अमेरिका अफगान सरकार व तालिबान के मध्य बैठकों के कई दौर भी गुजर चुके हैं। परंतु अचानक कुछ दिनों पहले अफगानिस्तान में नाटो सेना पर तालिबान ने हमला कर इस शांति वार्ता पर एक जोरदार प्रहार किया।इसी के साथ ट्रंप ने भी अपने स्वभाव के अनुसार तालिबान को धमकी दी कि अब वह अफगानिस्तान में और अधिक हवाई हमले करेगा तथा तालिबान का पूर्ण विनाश करने के बाद ही रुकेगा। तो क्या ट्रंप जिस वादे के  साथ आए थे, कि 2020 के पहले तक अमेरिका कि सेना को युद्ध ग्रस्त क्षेत्र से कम करना। क्या शासन अपने इस बात पर खरा उतर पाएगा?

क्या है तालिबान के जन्म का राज? -
                                                   द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात दुनिया में दो महाशक्तियों का उदय अमेरिका व सोवियत संघ के रूप में हुआ।कई वर्षों तक इन दोनों के मध्य शीत युद्ध चला।दोनों ही महाशक्तियां विश्व में अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी अपनी आर्थिक व सामरिक ताकत बढ़ाने में लगी थी ।इस दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कई घटनाक्रम हुए।ऐसा ही एक घटनाक्रम 80 के दशक में मध्य एशिया के अफगानिस्तान में हुआ तत्कालीन सोवियत संघ जो कि अफगानिस्तान से सीमा बनाता था। उसकी महत्वाकांक्षा थी अफगानिस्तान पर कब्जा कर पाकिस्तान होते हुए अरब सागर तक पहुंच बनाना। अब अरब सागर तक पहुंच बनाने में सोवियत संघ के अपने आर्थिक व सामरिक हित थे। साठ के दशक के बाद काला सोना (पेट्रोलियम) व पेट्रोलियम भंडारो पर कब्जा करने की होड़ लग गई, तथा अपने आप को दुनिया की महाशक्ति कहलाने के लिए आवश्यक था, कि किसी भी प्रकार काला सोना पेट्रोलियम पर कब्जा किया जाए।यदि हम साठ के दशक के बाद खाड़ी युद्ध इराक युद्ध लीबिया सीरिया क्यूबा या वियतनाम में जहां भी युद्ध हुए। अमेरिका और सोवियत संघ आमने-सामने थे। निश्चित रूप से इनकी नजर जहां के खनिज संपदा वह पेट्रोलियम पर थी। चलिए यहां बहुत ज्यादा बात ना करते हुए अफगानिस्तान की बात करते हैं।

तो तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया इरादा साम्राज्यवाद व खनिज संपदा व अफगानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान होते हुए अरब सागर तक पहुंच बनाना तथा खाड़ी देशों से से संपर्क स्थापित करना था। निश्चित रूप से इस घटनाक्रम से उसके चीर प्रतिद्वंदी अमेरिका का चैन उड़ गया । उसे इस क्षेत्र में सोवियत संघ का सामना करने के लिए एक साथी की जरूरत थी। भारत के तत्कालीन सोवियत संघ के साथ घनिष्ठ संबंध थे , तो उसे मिला पाकिस्तान का साथ यद्यपि पाक के भी हित जुड़े थे,क्योंकि पाक को भी डर था।कि कहीं रूस अफगान के बाद पाक पर भी कब्जा ना कर ले, तो उसने अमेरिका की मदद करने का फैसला किया।क्योंकि अमेरिका पहले से ही जानता था कि सोवियत संघ से आमने-सामने की लड़ाई में जीतना आसान नहीं होगा  उसने पाकिस्तान की मदद से जिहादियों को तैयार किया जिसमें से एक लादेन भी था जो बाद में उनका कमांडर बना हुआ, इस्लाम के नाम पर कबायली इलाकों में लोगों को सोवियत संघ के खिलाफ बगावत पर उतार दिया। निश्चित तौर पर अमेरिका का हाथ था ,इन जिहादियों के जन्म पर क्योंकि उस समय उसके अपने हित थे।

तालिबान कैसे बना अमेरिका का दुश्मन?
                                                           अब सवाल यह उठता है, कि जब तालिबान को अमेरिका ने ही बनाया सीआईए तथा पाक पाकिस्तान की मदद से तो फिर तालिबान अमेरिका का ही दुश्मन कैसे बन गया? जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना जिहादियों का सामना न कर सकी तो सोवियत संघ को अफगानिस्तान से हटना पड़ा।इसके बाद के विभिन्न घटनाक्रमों के फलस्वरुप  सोवियत संघ का विघटन तथा आज के रूस का जन्म हुआ।परंतु रूस के अफगानिस्तान से जाने के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया वह अफगानिस्तान पर कट्टर इस्लामिक शरिया कानून लागू कर दिया। जिसकी आड़ में तालिबान द्वारा अफगानिस्तान में मानवाधिकार का हनन करना शुरू कर दिया। यहीं से शुरू होती है ,आतंकवाद की जो जिहादीयों को कल तक अमेरिका का समर्थन प्राप्त था। आज आतंकवाद का पर्याय बन चुका था,तथा मानवता का दुश्मन का बन चुका था।अमेरिका ने कई बार तालिबान का विरोध किया तथा उससे वहां सत्ता छोड़ने तथा लोकतंत्र बहाल करने का दबाव बनाया। यही बात तालिबान को नागवार गुजरी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 की घटना इसी से प्रेरित थी। इस आतंकी घटना में 3000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए इस हमले ने दुनिया को हिला कर रख दिया तथा अब अमेरिका के सामने तालिबान से खुली चुनौती मिलने लगी थी। तालिबान जिसका सरगना ओसामा बिन लादेन थ। उसने लगभग पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था, अब उसकी महत्वाकांक्षा इस्लामिक शरिया कानून लागू कर इसे और फैलाने की थी। यह लड़ाई सीधे तौर पर अमेरिका व नाटो तथा तालिबान के मध्य हो गई थी। तथा अब पूरी दुनिया समझ चुकी थी कि तालिबान एक वैश्विक आतंकवाद का पर्याय बन चुका है, जिससे निपटना आवश्यक है ।


अमेरिका तालिबान युद्ध की जमीनी हकीकत-
                                                                  निश्चित रूप से अब लड़ाई आमने-सामने की हो चुकी थी। परंतु तालिबान भी लगातार पश्चिमी देशों को निशाना बनाने लगा था। व जिस पाकिस्तान ने आतंकवाद को जन्म दिया मदद कि आज वह उसी की धरती पर खून बहाने लगा पाक की मंशा यही थी कि तालिबान जिहादियों का अफगानिस्तान मिशन खत्म होने के बाद उसे भारत के खिलाफ उपयोग किया जाए परंतु अब उनका यह दांव उल्टा पड़ चुका था।अब तालिबान किसी की नहीं सुन रहा था। वह केवल अपनी जिहादी मानसिकता को लेकर अफगानिस्तान पर राज करना चाहता था। तालिबान ने सबसे पहले 1996 में काबुल पर क़ब्ज़ा किया।लगभग दो सालों में पूरे देश पर शासन करने लगा था। उसने इस्लाम के कंट्टरपंथी रूप को बढ़ावा दिया और सरेआम फांसी जैसी सजाएं लागू कीं।अमरीका और उसके सहयोगियों के हमले के दो महीनों के अंदर तालिबान का शासन ख़त्म हो गया और तालिबानी लड़ाके पाकिस्तान में भाग गए.इसके बाद साल 2004 में अमरीका के समर्थन वाली सरकार बनी लेकिन पाकिस्तान के सीमांत इलाक़ों में तब भी तालिबान का दबदबा बना रहा,साथ ही उसने ड्रग्स, खनन और टैक्स के ज़रिए हर साल लाखों डॉलर की कमाई की.अफ़ग़ानिस्तान दुनिया में अफ़ीम का सबसे बड़ा उत्पादक है। इसकी अधिकतर पैदावर तालिबान के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में होती है। ये तालिबान की कमाई एक बड़ा ज़रिया है। फिर से ताक़त जुटा रहे इस नए तालिबान ने लगातार आत्मघाती हमले किए और अंतरराष्ट्रीय व अफ़ग़ान सेना के लिए इन पर क़ाबू पाना मुश्किल हो गया।  


साल 2014 के अंत तक नाटो के देश इस लड़ाई में लंबे समय तक शामिल होने से पीछे हटने लगे और अफ़ग़ानी सेना पर भार बढ़ गया। इससे तालिबान को और हिम्मत मिल गई. उन्होंने कई इलाक़ों पर क़ब्ज़ा किया और लगातार बम धमाके किए।पिछले साल छपी बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अफ़ग़ानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से पर तालिबान खुले तौर पर सक्रिय है।ये कह पाना मुश्किल है कि इस लड़ाई में कितने अफ़ग़ान सैनिक मारे गए।अभी तक ऐसी कोई संख्या जारी नहीं की गई है। लेकिन जनवरी 2019 में अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने कहा था, कि 2014 से सुरक्षा बलों के 45 हजार सदस्य मारे गए हैं।2001 के बाद से अंतरराष्ट्रीय सेना के 3500 सदस्य मारे जा चुके हैं, जिनमें से 2300 अमरीकी सैनिक हैं।अब तक मारे गए आम अफ़ग़ानी लोगों की संख्या पता लगा पाना तो और मुश्किल है।फरवरी 2019 में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक 32 हजार से ज़्यादा आम नागरिक मारे गए हैं. वॉटसन इंस्टीट्यूट ऑफ ब्राउन यूनिवर्सिटी के अनुसार 42000 विरोधी लड़ाके मारे गए।पाकिस्तान को अमेरिका से हथियार व तालिबान से लड़ने के लिए बहुत धन दिया गया। निश्चित तौर पर यह एक अलग बात है ,कि पाकिस्तान ने पूर्ण ईमानदारी से अमेरिका का साथ नहीं दिया तथा इसके विपरीत उसने इन संसाधनों का उपयोग भारत के खिलाफ ही किया कई बार बात होती है, अच्छे वह पूरे आतंकवाद की पाकिस्तान ने अमेरिका की आंखों में धूल झोंकते हुए आतंकवाद कि सीमा तैयार कर दी एक आतंकवाद वह जो उसके लिए नुकसानदायक था,वह बुरा आतंकवाद और कुछ आतंकवादी जो भारत के खिलाफ थे।वह उनका संरक्षण करने लगा निश्चित तौर पर यही कारण था, कि अमेरिका अफगानिस्तान में तालिबान से निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ सका।

अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया-



                                               अब जब अमेरिका जान चुका है कि तालिबान से बात करना आवश्यक है तथा इस शुद्ध का एक शांतिपूर्ण लेना है कल निकलना अवश्य के झोंके ट्रंप इसी वादे के साथ आया था कि वह युद्ध ग्रस्त देशों से अपनी सेना को हटाएगा अब प्रशासन चाहेगा कि आगामी राष्ट्रपति चुनाव से पहले व अफगानिस्तान से अपनी सेना कम करें परंतु कई दौर की वार्ता के पश्चात भी कोई हल न निकलना इस शांति वार्ता के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।  इस शांति वार्ता में पाकिस्तान की भूमिका के कारण अमेरिका को उसके साथ की आवश्यकता है। परंतु भारत के अचानक कश्मीर से धारा 370 हटाने के पश्चात पाकिस्तान ने भी यूएस पर अनैतिक दबाव बनाया कि वह 370 को लेकर भारत के खिलाफ पाकिस्तान का साथ दें अन्यथा वह तालिबान के साथ शांति वार्ता में अमेरिका की मदद नहीं करेगा।परंतु भारत के कूटनीतिक प्रयासों की वजह से अमेरिका भी व्यवस्था हाल ही में अफगानिस्तान में शांति वार्ता को तब झटका लगा जब अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना पर तालिबान ने हमला किया वह कई नाटो सैनिकों को मार दिया अमेरिका ने भी अब सीधे तौर पर वार्ता को रद्द करते हुए और अधिक हवाई हमले करने की बात कही। अमेरिका से शांति वार्ता रद्द होने के पश्चात तालिबान का प्रतिनिधि मंडल रूस में व्लादिमीर पुतिन से  मुलाकात करने पहुंच गया। तो क्या यह अमेरिका व रूस के हित का टकराव होगा? क्यूंकि रूस अमेरिका के पीछे हटने से फिर से अपना प्रभाव अफगानिस्तान में बडाना चाहेगा, निश्चित तौर पर यह ट्रंप की नाकामी ही है ,जो बड़े- बड़े वैश्विक मुद्दों से अमेरिका को अलग कर रहा है। या अब अमेरिका विश्व का नेतृत्व करने के काबिल नहीं रहा?


अफ़गानिस्तान शांति वार्ता वह भारत के हित-
                                                                   एक शांत अफगानिस्तान दुनिया के लिए अत्यंत आवश्यक है निश्चित रूप से पड़ोसी होने के नाते भारत के सीधे राजनीतिक व आर्थिक हित अफगानिस्तान से जुड़े हैं अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत ने काफी निवेश किया है तथा ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान तक जलाराम सड़क के द्वारा मध्य एशिया व यूरोप तक का मार्ग हमें मिलता हैतथा अफगानिस्तान के भारत के साथ हमेशा से ही महत्वपूर्ण संबंध रहे हैं।
                 फिलहाल जो भी हो अफगानिस्तान में निर्णायक समय आ चुका है वह जल्द से जल्द इस समस्या का समाधान निकालना भी आवश्यक एक कहावत है दुश्मन का दुश्मन दोस्त यह कहावत यहां पर सच बैठती है एक समय था जब तालिबान अमेरिका का दोस्त था जब उसे सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई लड़नी थी परंतु आज तालिबान अमेरिका का दुश्मन है।


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