Bheema Koregaon Battle: - दलित योद्धाओं से जुड़ा इसका गौरवमयी इतिहास

दलित योद्धाओं से जुड़ा इसका गौरवमयी इतिहास


आज 1 जनवरी 2021 का पहला दिन पूरी दुनिया में नए साल के आगमनके रूप में मनाया जाता हे।  परन्तु भारत के लिए इस दिन का इतिहास कीदृष्टि से काफी महत्वपूर्ण दिन है। आप सब से अनुरोध हे की किसी भी पूर्वाग्रह के आधार पर कोई राय बनाने से पहले मेरे लेख को अच्छे से पड़ ले , क्यूंकि  मैं आज निष्पक्ष और  तथ्यात्मक रूप से उक्त घटना को समझने का प्रयास करूँगा। भीमा कोरेगांव की लड़ाई जो की आज से लगभग 202 साल पहले 1 जनवरी 1818 में लड़ी गयी थी।   यह युद्ध कहने को तो अंग्रेजो की भारत विजय की महत्वकांक्षा का एक महत्वपूर्ण  अध्याय में से एक है। इस युद्ध में एक और  ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा  गुट थे जिनके  बीच, कोरेगाँव भीमा में लड़ी गई। अंग्रेजो ने पेशवाओ को महारो की सहायता से ही हराया था। महारो की इस विजय की याद में यहाँ विजय स्तंभ की स्थापनाकी गयी है। जहा प्रतिवर्ष 1 जनवरी को युद्ध मे शहीद हुए लोगो को श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचते है। 




भीमा कोरेगांव लड़ाई की पृष्टभूमि - 

                                                         इस युद्ध की पृष्टभूमि में मुख्यतः  साम्राज्यवाद और जातिवाद  तथ्यों  का जिक्र आवश्यक है जो  इस युद्ध में निर्णायक रहे  ,इस युद्ध की पृष्टभूमि में मुख्यतः अंग्रेज, पेशवा और महार का जिक्र अतयधिक है। एक और अंग्रेज रेजिमेंट की 800 सैनिको की टुकड़ी जिनमे 500  महार जिनका नेतृत्व कप्तान फ्रांसिस स्टौण्टन कर रहे थे । वही दूसरी और पेशवाओ की सेना का नेतृत्व बाजीराव द्वितीय कर रहे थे जिनमे 28000 सैनिक थे। यह लड़ाई जंहा पेशवाओ ने अपने साम्राज्य को बचने के लिए लड़ी  तो दूसरी और महार सैनिको ने सदियो की जातिवाद और ब्राह्मण  वाद  की व्यवस्थाओ से आजाद होने के लिए तो चलिए युद्ध की मुख्य पृष्टभूमि को समझते है।

                          हम सभी जानते है, की अंग्रेजो का मकसद भारत में अपना सम्राज्य विस्तार था,जिनमे उनके अपने राजनैतिक, आर्थिक और सामरिक स्वार्थ थे। मराठा साम्राज्य 1800 के दशक तक 5  भागो में बंट गया था , जिसमें प्रमुख घटक पुणे के पेशवा ग्वालियर के सिंधिया  इंदौर के होल्कर और बड़ौदा के गायकवाड़  और नागपुर के भोंसले थे।


ब्रिटिशो ने इन गुटों के साथ शांति संधियों को तब्दील किया और हस्ताक्षर किये , उनकी राजधानियों पर निवास की व्ययस्था की।  ब्रिटिशने पेशवा और गायकवाड़ के मध्य राजश्व बटवारें विवाद में हस्तक्षेप किया और 13 जून 1817 को कंपनी ने पेशवा को गायकवाड़ के सम्मान के दावों को छोड़ने और अंग्रेजो की स्वाधीनता स्वीकारने को मजबूर किया। पुणे की इस संधि ने औपचारिक रूप से अन्य मराठा प्रमुखों  पर भी पड़ा था। इसके तुरंत बाद पेशवा ने पुणे में ब्रिटिश रेसीडेंसी को जला दिया परन्तु 5 नवम्बर 1817 को अंग्रेजो ने खड़की के युद्ध में पेशवाओ को भगा दीया और पुणे पर कब्ज़ा कर लिया। 1857 से पहले जितने भी युद्ध अंग्रेजो के खिलाफ हुए  वो सभी साम्राज्वाद को लेकर हि लड़े गए थे। इस समय देश भक्ति और राष्ट्र वाद की भावना केवल अपने साम्राज्य तक ही सिमित थी। 

दलितों का शोषण - 

                                  यह सच है ,की पेशवा की नीतियां ब्राह्मणवादी थी। शुद्रो को थूकने के लिए अपने गले में हांड़ी लटकाना जरुरी था, ताकि  उनके नक् मुंह से गंदगी जमीं पर भी ना पड़े क्युकी इससे भूमि अपवित्र हो जाती थी। साथ ही कमर पर झाड़ू बांधना भी जरुरी था जिससे धरती पर उनके पैर के  निशान मिटते रहे। ये प्राचीन भारत से चले आ रहे वो नियम थे, जिसके खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रहीं। दलित इस लड़ाई को अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार करने वाले पेशवाओं पर जीत की तरह देखते हैं। इतिहासकारों के अनुसार भीमा-कोरेगांव में हुई लड़ीई में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले ज्यादातर सैनिक महाराष्ट्र की अनुसूचित जाति (महार) के थे। इससे पहले महार, शिवाजी के समय से ही मराठा सेना का हिस्सा हुआ करते थे। बाजीराव द्वितीय ने अपनी ब्राह्मणवादी सोच की वजह से दलितों को सेना में भर्ती करने से इंकार कर दिया था। इस वजह से दलित मराठों से खफा थे।ये प्राचीन भारत से चले आ रहे वो नियम थे, जिसके खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रहीं, लेकिन इन दलित विरोधी व्यवस्थाओं को बार-बार स्थापित किया गया। इसी व्यवस्था में रहने वाले महारों के पास सवर्णों से बदला लेने का अच्छा मौका था और इसीलिए महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल होकर लड़े। एक तरफ वो पेशवा सैनिकों के साथ लड़ रहे थे दूसरी तरफ इस क्रूर व्यवस्था का बदला भी ले रहे थे।

                             

 

युद्ध का परिणाम                                         

                          इतिहासकारो के अनुसार इस युध में आधिकारिक रूप से किसी की निर्णायक विजय नहीं हुई परन्तु इस युद्ध से मराठा साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया था। इस युद्ध में कंपनी के 834 सेनिको में सी 275 सैनिक मरे गए ,घायल या लापता हुए। वही दूसरी और पेशवा के लगभग 500 -600  सैनिक मरे गए या घायल हुए। अंत में निराश पेशवा ने 2 जून 1818 को जॉन मॉलकॉम से मुलाकात की और एक आत्मसमर्पण संधि पर   हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार उन्हें बिठूर में एक निवास स्थान और कुछ पेंशन दी गयी बदले में उनके सरे शाही अधिकार छीन लिए गए। 
                                                                                          क्यूंकि यह तीसरा आंग्ल मराठा युद्ध था,और मराठा का ब्रिटिश सेना से अंतिम युद्ध अतः हम कह सकते हे की इस युद्ध  पेशवा  हुई अतः इस युद्ध  महारो  की सहायता सेकपेनी की जीत के तौर पर देखा है। 





   1  जनवरी 2018 को जब भीमाकोरेगांव की विजय को दलितों द्वारा  200 वर्ष पुरे होने पर शौर्य दिवस के रूप में मनाने पर हिंसा फेल गयी थी। तथाकथित राष्ट्रवादी लोगो का कहना है, की इस युद्ध में  महारो ने अंग्रेजो का साथ दिया अतः यह राष्ट्र द्रोह की श्रेणी माता है। बस यही हम गलती कर देते है पहली बात तो उस समय कोई भी युद्ध लड़ा जाता था तो उसका मकसद साम्राज्यवाद होता था। वही दलितों के जो की पहले से ही जातिवाद की गुलामी झेल रहे थे, जिनकी कमर पर झाड़ू बांध दी जाती थी ताकि उअके पैरो के निशान धरती से मिट सके गले में हांड़ी टांगी जाती थी ताकि नाक , थूक और पसीना जमीन पर न पड़े। ऐसी स्थिति में कुछ लोग कहते है ,देशद्रोही कहते है परन्तु महार इस युद्ध में इसलिए लड़ें  थे ताकि वो जातिवाद से आजाद होकर कमसे कम स्वतंत्रता से बिना झाड़ू लटकाये चल तो सके। ये लड़ाई भी महारो के आत्मसम्मान उनकी मिटटी जमीन के लिए ही थी  नजरिया चाहिए इस सच का सामना करने का। 


"इतिहास हमारा आइना होता हे अगर हम इतिहास से सिख लेकरअपना वर्तमान सुधर लें तो यकीनन भविष्य मानवता के लिए सुनहरा होगा "

इसी के साथ नए वर्ष की हार्दिक बधाई 
"happy new year"
 

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